रविवार, 25 अक्तूबर 2020

कविता/poonam pathak gautam

 पंचपोथी - एक परिचय


नमस्कार 
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Poonam pathak gautam 



1. मैं गांधारी नहीं

मैं गांधारी नहीं,
जो आंख पर पट्टी बांध,
समाज को पतिव्रता का,
अद्भुत संदेश पढ़ाती रही।
मैं हूँ जिंदगी का वो यथार्थ,
जो,
जिंदगी जे कड़वे सच को,
खून का घूँट पीकर,
एक नई राह दिखाती रही।
गांधारी ने आंखों में पट्टी बांधी,
मैंने,
मन की पट्टी खोली,
देखा वो सच,
जो सचमुच सत्य नही था 
था मिथ्या भरम,
टूटे स्वर लहरी का कम्पन था।
सत्य कहाँ थरथराता है,
वो तो गहरे विश्वास दे जाता है,
ये जीवन ही हमे भरमाता है,
आंखों पे झूठ की पट्टी बांध,
जीवन के सच को छिपा,
मृगतृष्णा की राह दिखता है।
मगर मैं गांधारी नही,
बस हूँ,
इस पुरुष प्रधान समाज की,
स्पष्ट विचारोंवाली,
एक सशक्त नारी,
जो समाज के आंखों की,
भरम की पट्टी खोलकर,
मर्यादा में खुद को तोलकर,
जीवन का सच समझाती है।
जीवन तो है,
अब हर पल महासमर,
मन के अंधकार को चीरकर,
कंटकाकीर्ण राह में,
विश्वास की लौ जगाती है।
मन के हर भ्रम को,
एक नई रौशनी दिखाती है।
क्योंकि,
जीवन खुद में उलझा है,
रिश्तों का सच तो बस,
खुद को खोकर जिंदा है,
जीवन के इस उलझे ताने बाने को,
स्पष्ट राह बतलानी है,
गांधारी की एक नई परिभाषा,
इस खोखले समाज को,
हर रोज दिखानी है।
क्योंकि,
मैं गांधारी नही,
हूँ एक सशक्त नारी।
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2. कोमल मन तू कोमल बन

ऐ कोमल मन,
फिर तू पहले जैसा बन,
बचपन सी निश्छलता मन मे भर,
फूल सी खुशबू की  आगाज बन,
पंछियों के कलरव का परवाज बन,
पर हे प्रिय मन,
 तू प्रस्तर तो न बन।।
बचपन की दुनिया अच्छी थी,
हर कोमल भावनाएं बिल्कुल सच्ची थी,
राग विराग से परे,
भावनाओं का जोर था,
चिल्लाता मन कतई कमजोर न था,
मन सीधा था,
व्यंग बाणों से कभी न वो बिंधा था,
चिल्लाता था,
हहराता था,
फिर कोमलता में हीं वो प्रश्रय पाता था,
ऐ कोमल मन,
फिर तू पहले जैसा बन,
पर हे प्रिय मन,
तू प्रस्तर तो न बन।।
भगवान भी तुम्हे साधने आते हैं,
जब जिंदगी की कड़ी धूप में तुम्हे झुलसाते हैं,
हर प्रिय से तुम्हे अलग थलग कर जाते हैं,
तुम्हे कुंदन बनना सिखाते हैं,
तू क्यूँ उसका मर्म समझ नहीं पाता है,
नाहक ही तू कठोर बन जाता है,
प्रभु का संदेश लिए,
उनका ही एक रुप लिए,
साक्षात देवदूत बन,
पर हे प्रिय मन तू,
प्रस्तर तो न बन।।
सृजन बन,
सुसंस्कृत विचार बन,
अचेतन मन का चैतन्य प्रवाह बन,
पर हे प्रिय मन,
तू प्रस्तर तो न बन।।
शिक्षा और संस्कृति का आधार बन,
अमूर्त कल्पनाओं का मूर्त संसार बन,
मानवता का द्वार बन,
पर हे प्रिय मन तू प्रस्तर तो न बन।।
अंधकार का प्रकाश बन,
मानव जीवन का सार बन,
आत्मलीन रहकर भी,
सबकी खुशियों का आधार बन,
पर हे प्रिय मन तू प्रस्तर तो न बन।।
वक्त की धड़कन पढ़,
खुद से खुद को गढ़,
बचपन के कोमल भावों को,
फिर से अपने निश्छल मन मे भर,
उसको भावों की नींव बना,
उसपर कोमलता के दीप जला,
अपनी ही खोई खुशियों का आधार बन,
पर है प्रिय मन तू प्रस्तर तो न बन।।
तू साधक बन,
तू खुद की खुशियों का,
बेवजह बाधक तो न बन,
हे प्रिय मन तू फिर से बचपन जैसा बन,
फिर से तू कोमल बन,
कोमलता का एक अध्याय बन,
हे प्रिय मन ,
तू प्रस्तर तो न बन,
हे कोमल मन,
तू फिर से पहले जैसा कोमल बन।
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3. क्या अद्भुत संघर्ष हमारा था

क्या अद्भुत हमारा था,
आंखे चुप,
हृदय वज्र,
मन दग्ध,
जीवन भी खुद से हारा था,
क्या अद्भुत संघर्ष हमारा था।
मोर्चा लगी थी जिंदगी,
बरछी की नोक पर भविष्य आहत और हारा था,
दीमक खाये विचारों से,
हृदय बिंधकर भी,
बागी तेवर में खुद को ढाला था,
क्या अद्भुत संघर्ष हमारा था।
जिंदगी के पाषाण वक्ष भी,
कोमल नवजात से संघर्ष से,
मां के सूखे वक्ष में,
अपनी जद्दोजहद से,
वात्सल्य का दूध उतारा था,
क्या अद्भुत संघर्ष हमारा था।
मौन भी जहां मुखर था,
हृदय दाह भी प्रखर था,
प्रस्तर सा जीवन भी,
अपने अंदर आग सूरज की,
बड़ी बेचैनी से उतारा था,
क्या अद्भुत संघर्ष हमारा था।
धमनियों में दौड़ते रक्त के तूफान से,
हमने अपने जीवन के अवसान को,
नव विहान में बदलने को,
अपने दृढ़ मन मे ठाना था,
क्या अद्भुत संघर्ष हमारा था।
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4. आत्मविजेता
 
आज मैंने छंदों की पायल उतार दी है,
अतिरेक को ,
उसकी सीमा समझा दी है,
मन के सैलाबों को,
 उनकी हैसियत बता दी है,
क्यूंकि,
आज बादलों ने,
 जीवन की हकीकत,
 फिर से मुझे समझा दी है।
उनका उमड़ना,,
गरज के फिर से बरस जाना,
जीवन के धूप छाँव की सच्चाई,
खुद से खुद में जीने की,
हर्षित अदा सिखला दी है।
उसमे न कहीं राग हैं न ही द्वेष है,
बस भावनाओं का,
 उमड़ा प्रेम विशेष है।
क्रोध को बोध से,
अभाव को भाव से,
अव्यक्त को व्यक्त से,
एक नई पहचान करानी है,
भौतिकता को रख हाशिये पर,
अध्यात्मिकता की,
 रहगुजर अपनानी है।
जहां कर्म है वहीं धर्म है,
इस निस्सार जीवन का,
यही शाश्वत मर्म है।
परसेवा में ,
निरत हो सबका अन्तर्मन,
तब ही पल्लवित होगा,
मानव मन का गूढ़ प्रयोजन।
खुद के लिए तो,
 हर प्राणी जी ही लेता है,
औरों के लिए,
 किन्तु परन्तु के छंदों में
स्नेह सत्य प्रेम भाव से ,
सिंचित है जो जीवन,
कर अपना सर्वस्व उत्सर्ग,
वही आत्मविजेता है।
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5. दुल्हन

बहुत हसरत थी हमारी,
दुल्हन बनूं प्रिय मैं तुम्हारी,
माथे पे हो तुम्हारे  नाम का सिंदूर,
महावर और बिछिया भी हो पुरनूर,
लाल जोड़े में सिमटता प्रिय सङ्ग मधुमास,
था मेरे जीवन की वजह बेहद ही ख़ास,
वक्त ने ऐसा दांव चलाया,
हसरत बन गयी जीवन की ये मोहमाया,
आज जीवन के उत्तरार्द्ध में भी,
महावर है लाली है सौभाग्य की,
उस पार के डोले में ,विस्मिल्ला खान की,
शहनाई की धुन है ,प्रियतम के अंदाज सी।

पूनम पाठक गौतम



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