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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

कविता/priya pandya

पंचपोथी - एक परिचय


नमस्कार 
तो कैसे है आप लोग?
ठीक हो ना! चलिये शुरुआत करते है सबसे पहले आपका बहुत बहुत स्वागत और हार्दिक अभिनंदन!

आपको बता दिया जाता है कि यह पंच पोथी समूह नये कवियों व नये लेखकों का मंच है ,इस मंच पर नये कवि व लेखक जो अपनी रचना प्रकाशित करना चाहता हो तो उन रचना को यहाँ प्रकाशित किया जाता है।

आपकी रचना कैसे प्रकाशित करे?

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Priya pandya 

State -mp 
District -khargon


रचनाएँ:-

Poetry -1
शीर्षक उड़ने की चाहत
उड़ने की चाहत में भूल गये हम अपनों को ! 
छोड़ मानवता तबज्जो दी सिर्फ सपनों को! 

शोहरत तो मिली पर संग में पायी तन्हाई ! 
भूल रहे संस्कार रिश्तों की हो रही रुसवाई।

लालच कामयाबी की ,हमें कितना दूर है ले आयी! 
ना वतन से प्रेम रहा,ना अपनों को याद कर आँखों में नमी आई! 

हो गये मशरूफ़, फिर भी मशहूरियत हाथ न आयी! 
निगल गयी अनमोल प्रेम को कैसी ये लालच हरजायी ।

इतनी ऊपर उड़े कि जमीं भी नज़र हमें ना आयी!  
आत्मा हमारी चकाचौंध और जीत की चाह मे भरमाई।



शीर्षक :- हेराफेरी
विधा :- कविता 2

चहूँ ओर संसार में जाने कैसी चल रही हेरा फेरी
गरीब मुँह ताक रहा अमीरों में पैसो की जोरा जोरी

नेता का बेटा नेता बने, न शिक्षा रही  अब प्रधान
अपना रूतबा बढ़ाने को सेल्फी खींच देते हैं सब दान

उसकी टोपी इसके सर करके सब काट रहे हैं दिन
गरीब भूखा ही सो जाता बेचारा रात को तारे गिन

पहन सफेद लिबास करबद्ध हो जनता के समक्ष होते खड़े
दो कौड़ी से ना पूछते हैं साहब ,जो बन जाते हैं नेता बड़े

गरीब की रोटी छीन यहाँ सब गोदाम अपने भर रहे 
धनी हुआ धनाढ्य गरीब तिल तिल कर भूखे मर रहे

अपनी रोटी सेंकने में हर कोई हुआ बैठा यहाँ व्यस्त
सबको लक्ष्मी माँ से मतलब चाहे संन्यासी हो या गृहस्थ।

कर घोटाले बड़े बड़े खुद को सफेद बगुला है बताते
कौन जाने ये कीचड़ से पकड़कर कितनी मछलियाँ खाते

अजगर से होते ये घूसखोर निगल गरीब को तनिक न मारे डकार।
सिक्को की गूंज के आगे ना सुनाई आये इन्हें दलितों की पुकार।

देख  इस संसार की हेराफेरी को लेखक और कवी हुए दंग।
किस- किस पर कलम से वार करें अब कितनों पर करें व्यंग्य! 

-priya pandya 



शीर्षक:- रिश्ते
कविता -3

अवतरण हुआ जब इस धरा पर रिश्तों की सौगात पाई 
आँखे खुली जब दुनिया में संग पाई रिश्तों की परछाई।

मातृ- पितृ संग कई रिश्तों की दौलत उपहार में पाई।
सुरक्षा कवच की भांति मुश्किलों से निजात मुझे दिलाई।

इन रिश्तों ने ही तो हमें दुनियादारी की समझ सिखायी।
रिश्तों रूपी पुष्प से ही ही जीवन की बंजर जमीजमीं में बहार आई।

रिश्तों ये वो डोर है जिसकी प्रेम गाँठ कभी ना खुल पायी! 
सहेजे जाते ही एहतियात से जो पड़े गाँठ फिर ना सुहायी ।

तो रूपी डोर में ही  जिंदगी रूपी मोतीयों की माला बनाई ।
एक मामूली पत्थर ने इस माला में जड़ दुनिया में शोभा पाई।

हारा सदा वो जिंदगी में जिसको रिश्तों की कदर न आयी।
अश्रु मिले जीवन के अंत में और सदा उसे मिली तन्हाई।

बड़े अनमोल होते हैं ये रिश्ते प्रेम से इसे सहेज लो भाई।
विश्वास से इन्हें मजबूत करो,बिना रिश्तों के खुशियाँ कहाँ मिल पाई?

-priya pandya 

शीर्षक:- परिवार 
कविता :- 4
यह वो सुरक्षा कवच है जिसके इर्द गिर्द बसता हमारा संसार! 
खुशियों की बुनियाद है ,मुस्कुराने की वजह है परिवार! 

जिसके संग बीता हर छण लगता ,जैसे  मानों कोई तीज त्योहार! 
जीवन जीने का आनंद तभी आता जब संग होता है परिवार।

मुसीबत पड़ने पर एक दूजे पर यहाँ देते सब जान न्योछार ।
त्याग बलिदान से सराबोर होता, प्रेम होता इसमें बेशुमार! 

दिल से जुड़े होते यहाँ रिश्ते न होता हृदय में ईर्ष्या द्वेष सुमार  ! 
जैसे ईंट से ईंट मिल मकान बनता वैसे सदस्यों से बनता परिवार।

हर सदस्य होता एक ईंट की भांति बुजुर्ग होता मजबूत दीवार! 
प्रहरी सम रक्षा करता सदा कर सक कोई  शत्रु अपनों  पर प्रहार! 

विश्वास की सीमेंट इसे मजबूत बनाती माँ होती है इसका द्वार! 
पिता होता छत इमारत की ना प्रवेश कर पाये मुसीबतों की बौछार! 

अपनों के लिए कोमल पुष्प सा, दुश्मनों के लिए शमशीर तेज़ धार! 
जो संग हो परिवार की ढाल, तो किसी भी चुनौती में ना होती है हार।

वो मूर्ख नादां है जो ना समझे कि क्या होता रिश्तों से बना परिवार ! 
बेशक शोहरत और कामयाबी मिलती। पर सदा रहती। प्रेम की दरकार।
-priya pandya

शीर्षक:- छोड़ बाबुल का घर
कविता:- 5

सदियों पुरानी रीति समाज की हँसकर हमें भी निभाना है! 
अपने प्यारे बाबुल का घर छोड़, हमें पिया संग जाना है! 

सोन चिरैया मैं बाबा की अब मुझे घर दूसरा चहकाना है! 
खत्म हुआ यहाँ दानापानी अब ससुराल में घरौंदा बसाना है! 

नन्हीं परी मैं अपनी अम्मा की पंख आते ही उड़ जाना है! 
जैसे सजाया घर बाबुल का अब  घर पिया का सजाना है! 

लाडो रानी मैं भैया की अब ससुराल को अपना बनाना है  ! 
बहन के हर फर्ज़ की तरह अब बहु का फर्ज निभाना है! 

दुलारी चाचा चाची की अब सास ससुर का दिल जीतना है! 
दिल से को अपना मान, अपने संस्कारों का मान बढ़ाना है! 


बिंदिया चूड़ी कंगन पायल पहन मुझे सुहागन बन जाना है! 
कर सोलह सिंगार मुझे अब अपने पिया के घर जाना है! 

जैसे बेटी का फर्ज निभाया हर रिश्ता बहू बन मुझे निभाना है! 
जुड़कर कई नये रिश्तों से ,सबको मुझे अपना बनाना है! 

वधु धर्म  की मर्यादा निभाने हर हद से मुझे गुजर जाना है! 
सुख दुःख की संगिनी बन पिया कि मुझे पत्नी धर्म निभाना है ! 

लिए जो बचन अग्नि को मान साक्षी उनका मान बढ़ाना है! 
सबके दिलों पर राज करने बहु नहीं बेटी बनकर दिखाना है! 

अपनी मेहंदी की खुशबू से पिया का घर द्वार महकाना है! 
सिन्दूर की लाली की तरह ससुराल में लालिमा फैलाना है! 

बाबुल का घर रोशन किया अब द्वार पिया का सजाना है! 
हाथों में हाथ थाम पिया के हर परिस्थिति में साथ निभाना है! 

-priya pandya




शीर्षक-

भुलाकर राग द्वेष का भाव हम सब को कदम से कदम मिलाना है
 नव निर्माण की खातिर साथ मिलकर चलना है, नया भारत बनाना है

रूढ़िवादिता, कुप्रथाओं और भ्रष्टाचार के तरू को जड़ से मिटाना है
वसुधैवकुटुम्बकम् की ज्योति को फिर से प्रत्येक हृदयँ में जलाना है! 
नव निर्माण......... 

मेरा भारत महान का नारा नहीं अब भारत को विश्व में महान बनाना है
भारत की नव युवा पीढ़ी के हृदयँ में स्वाधीनता की अनल जगाना है
नव निर्माण...... 

एक नया उत्थान होगा नव आर्यवृत्त का निर्माण होगा हम सब ठाना है;
अब सत्ता के भरोसे नहीं रहना नव निर्माण का स्वयं जिम्मा उठाना है
नव निर्माण...... 

-priya pandya

शीर्षक -
आशुफ्ता हो ज़िंदगी मसरूफ़ियत में कहीं खो गयी! 
मानों अब ज़िंदगी सारे रिश्तों के भार से मुक्त हो गयी! 

रिश्तों की मान मर्यादा हवस रूपी नागिन निगल गयी! 
रिश्तों की मोम सी आबरू लालच की अनल में पिघल गयीं! 

जो आँचल से लगा बच्चों को हर मुसीबत से बचाती है! 
क्यों वही माँ वृद्धा आश्रम के बाहर खड़ी गुहार लगाती है! 

जो पिता वृक्ष की भांति हर धूप से बच्चों को बचाता है! 
उसी पिता को वसीयत का काला साया निगल जाता है! 

भाई जायदाद के पीछे अपने ही भाई का आज बैरी हुआ! 
अब बुजुर्ग मिलते नहीं घरों में ,कुत्ता घरों का प्रहरी हुआ! 

सभ्य समाज में रिश्तों की आबरू पल-पल लूटी जा रही! 
पैसों और शोहरत के लालच में रिश्तों की माला टूटी जा रहीं! 

छिन्न-भिन्न हुए संयुक्त परिवार अपनों को अपनों के लिए फुर्सत नहीं!. 
संभाल रहे अब दफ्तर माता-पिता,बच्चों को आया संभाल रही! 

अपनों में सबसे प्यारा दोस्त ही दोस्त का दुश्मन बन बैठा! 
होता था जख्मों पर मरहम कभी, आज जहरीले नाग सा फैला फन बैठा! 

मसरूफ़ियत के दौर ने बदल के रख दी रिश्तों की झांकी है! 
कैसे कह दूँ मैं ,कि इंसानों के दिल में *फिक्र अपनो की* अब भी बाकी है! 

-priya pandya
शीर्षक-
एक सवालको ही 

क्यों हर 
शीर्षक-



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