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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

कविता/ aruna jaiswal

पंचपोथी - एक परिचय


नमस्कार 
तो कैसे है आप लोग?
ठीक हो ना! चलिये शुरुआत करते है सबसे पहले आपका बहुत बहुत स्वागत और हार्दिक अभिनंदन!

आपको बता दिया जाता है कि यह पंच पोथी समूह नये कवियों व नये लेखकों का मंच है ,इस मंच पर नये कवि व लेखक जो अपनी रचना प्रकाशित करना चाहता हो तो उन रचना को यहाँ प्रकाशित किया जाता है।

आपकी रचना कैसे प्रकाशित करे?

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1 - आपकी रचना मौलिक होनी चाहिये।
2 - कम से कम 5 रचना भेजे।
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Aruna jaiswal 

रचनाएँ 

शीर्षक- अकेला चल
रचना-1
मुश्किलों से घबराता क्यों है?
झंझटों से डर जाता क्यों है?
हौंसला रखकर पर्वत पर चढ़
चोंट पर इक, रुक जाता क्यों है?

असहाय तू खुदको ऐसे, किस समय तक पाएगा?
परिवार से भी आश्रय, आखिर कब तलक पाएगा?
कोई नहीं साथी जब तेरा, तो अकेला ही चल
हर लक्ष्य आज नहीं तो, असंशय कल तक पाएगा।

शीर्षक- खुद पर कविता
रचना-2

एक नवल कवि जी थे,
खुद पर कविता लिख रहे,
अपने मन के भावों को,
वे शब्दों में थे गढ़ रहे।
पहली कविता उन्हें, अपने ऊपर थी कुछ कम लगी,
इसलिए फाड़ा पेज और फिर से नई कविता थे लिख रहे।
बात यहाँ जब स्वयं की थी,
तो क्यों किसी बात में फिर पीछे रहे,
अतिशयोक्ति तो उनके हिसाब से कुछ भी नहीं हुई,
उनकी बहादुरी के उसमें असंख्य किस्से रहे।
कुछ देर बाद ही उनका बालक पुकारा,
आपके पीछे है चूहा, सुनना था इतना कि कविवर थे उठकर भाग रहे।

शीर्षक - नवल किरण
रचना -3
बादलों के पीछे देखो,दिवाकर छिपा मुस्कुरा रहा,
अपनी मुस्कुराहट के यह मोती, सब ओर बिखरा रहा।
सरिता भी जैसे ठहर गई, कुछ पल इसे निहारने को,
मुस्कुराहट के यह मोती अंतस् में अपने उतारने को।
                      निश्छल, नि:स्वार्थ, कैसा यह अद्भुत प्रकाश है,
                      हरके रहेगा यह हर तम, मुझे पूर्ण विश्वास है।
                   ‌   पल-पल मरता हूँ, टूटता हूँ, कण-कण बिखरता हूँ,
                      फ़िर भी यह घोर आश्चर्य देखो, पुनः उठ खड़ा होता हूँ।
क्योंकि यह उम्मीद की 'नवल किरण' मुझे हारने नहीं देती है,
जगा मुझे फिर से मेरा अंग-अंग उत्तेजित कर देती है।
कहती है मुझसे कि हारना तेरा काम नहीं,
आया है जब जग में तो, इतना सस्ता तेरा दाम नहीं।

जीवन पाया है जब तूने मनुष्य का, तो उठ कुछ उद्देश्यपूर्ण कर्म कर,
आत्मविश्वास से हो परिपूर्ण, चल सदा मानवता के धर्म पर।

शीर्षक - हरिगीतिका छंद
रचना- 4
अरुणोदय का अद्भुत, दृश्य यह मन को अति भा रहा,
इस दिव्य आनंदमय,बोध से हिय मेरा गा रहा।
लाल चुनर ओढ़ प्रकृति, भी अत्यधिक हर्षित हो रही,
संसार को प्रकाशित, कर रश्मिरथी नयी बढ़ रही।।

शीर्षक- बालिका
रचना -5
 
लिख रही हूं एक हकीकत, न कि यह कोई कहानी है,
एक एम.डी. डाॅक्टर की सर्जन बालिका की यह ज़िन्दगानी है।

बचपन बीता जिसका बड़े ही एशो-आराम में,
था शिक्षा जिसका एकमात्र लक्ष्य, और थी अव्वल हर इम्तिहान में।

बहुत बड़े ह्रदय विशेषज्ञ चिकित्सक से जिसका ब्याह हुआ,
पर वाह रे! इंसान, इतनी उच्च शिक्षा के बाद भी था, विचारों का स्तर गिरा हुआ।

पाया अत्यंत दु:ख, सदा फूलों पर चली उस लाड़ो ने,
माता-पिता ने भी खड़े कर दिए हाथ, चलना था उसे अकेले ही काँटों में।

पर वाह रे! वीरांगना, तूने भी हिम्मत नहीं हारी,
दो जुड़वां बच्चों को कोख में लेकर ढूंढती रही राह, जगाकर हृदय में आस की चिंगारी।

पाकर रही वह अपनी मंज़िल, अपने नाम के डंके थे उसने  बजवा दिए,
और उन लालची दरिंदों को भी उसने थे नाकों चने चबवा दिए।
 
-Aruna Jaiswal



शीर्षक-  समय

है यह अजब, बड़ा निराला, कब किस दिशा में ‌चले? इसका किसी को ज्ञान नहीं,
जैसे ऊंट बैठते वक़्त किस करवट बैठे, पहले से होता किसी को भान नहीं।

है इसके रूप अनगिनत, इन रूपों को कोई समझ न पाया,
कभी इसने राजा को रंक तो कभी रंक को राजा बनाया।
  
है खेल इसके बड़े अनोखे, इसके खेलों के आगे सबने शीश झुकाया,
राजतिलक के ठीक एक रात्रि पहले, भगवान श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास दिलाया।

अपने साथ-साथ इंसान को जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं से भी अवगत करवाता है,
इस प्रकार यह मानव जीवन में एक महत्त्वपूर्ण शिक्षक की भूमिका भी निभाता है।



शीर्षक- वीरता का वर्णन

है यह कहानी भारत के एक वीर सपूत महान की,
देकर अपनी जान जिसने रखी मर्यादा अपने 'आजाद' नाम की।

था जब वह छोटा-सा बालक, तब ही क्रांति में वह कूद गया,
अपने बुलंद हौसलों के दम पर अंग्रेजों की नाक में उसने था दम कर दिया।

जज के पूछने पर जिसने 'स्वतंत्रता' को पिता, 'जेल' को निवास और 'आजाद' अपना नाम बताया था,
जिसने इनाम में मिले पन्द्रह कोड़ों को भी अपनी खुली पीठ पर हंसते हुए खाया था।

अपने एक संकल्प "आजाद ही जिया हूं, आजाद ही मरूंगा" की खातिर, मरते दम तक लड़ता रहा,
आख़री गोली खुद पर चलाईं, पर जीते जी खुद को न अंग्रेजों के सुपुर्द किया।
 
है इतनी महान मेरी भारत भूमि की यह माटी, जो ऐसे लाल जनती है,
जिनकी मुट्ठी में बंधे होते हैं तूफ़ान और सीने में तीक्ष्ण ज्वालाएं धधकती हैं।

चीन जैसे विरोधी देशों को मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता मेरे देश की वीर सेना रखती हैं,
क्या शोध कर पाएगी भारत के जवानों की वीरता पर यह दुनियां? जिनकी मां अपने लालो को हंसकर विदा करती है।




शीर्षक-

तरसी है यह अँखियां, न जाने कब से माँ,
पुकारती तेरी संतान, अब तो आजा, हे 'माँ'।

हो रहा है शंखनाद, साथ में फूलों की बरसात,
भँवरे कर रहे गुंजन, बड़ी सुहानी है यह रात,
देखो जरा! अतुलनीय खुशी से कैसे सिंह सजा है,
मस्त पवन से लहरा रही मेरी 'माई' की ध्वजा है।
                   हुई है 'महामाया' अब शेर पर सवार,
                   एक हाथ में सोहे खप्पर, दूजे में तलवार,
                   देखो क्षिति भी स्वागत गीत है गा रही,
                   माँ के दर्शन की अब घड़ी निकट आ रही।
मिटा हर ताप इस धरा से, तेरी बेटियां पुकारती,
कहीं बंद कमरों से तो कहीं दबाई गई, तेरी संताने चित्कारती।
है यकीं हमें भी कि अब धरा का भार हटेगा,
निर्मलता की सुगंध से यह सारा संसार महकेगा।
        मिटेगा हर अँधकार और अमावस को भी उजियारी छाएगी,
        जब इस तम को मिटाने को स्वयं महामाया धरा पर आएंगी।




शीर्षक-

देखो आज यह सागर कितना शांत है,
क्योंकि थम चुका अब तूफ़ान है।
वही तूफ़ान जो मचा रहा था उत्पात अपार,
थी हमारी भी नैया उस समय मझधार।
                        अब बातें थीं अपनों की याद आने लगी,
                        कहा था उन्होंने कि है खतरा, हमें है आशंका लगी।
                        किन्तु हम ठहरे जिद्दी, हम ना सुनते किसी की,
                        करके हौंसले बुलंद, कर ली थी हमने भी अपने मन की।
लगता था ऐसा कि जैसे सागर की लहरें पुकार रही,
कभी सागर में भी सफर करो, जैसे हो हमसे कह रही।
न रोक सके थे हम खुदको और नैया थी आगे बढ़ा दी,
क्या होगा आगे? नहीं थी इसकी परवाह की।
                     ‌  अब था हमने भी तूफान को ललकारा,
                 ‌‌      था एकमात्र विश्वास ही हमारा सहारा।
                       पहुंचेंगे अवश्य किनारे पर, यह अटूट विश्वास था,
                       जीत हुई विश्वास की और पा लिया हमने किनारा था।
 
हौंसले यदि बुलंद हो और खुद पर हो विश्वास, तो कभी न सकोगे तुम बिखर,
अपनी कमज़ोरी को ताकत बना 'अरुणिमा सिन्हा' थी चढ़ गई ,सर्वोच्च शिखर।
                         


शीर्षक-

कितनी अजीब है यह दुनिया,
और इस दुनिया के रंग,
है कुछ ऐसे भी जो दूर रहकर भी पास है,
और है कुछ बहुत दूर, रहकर भी संग।
                कोई सच्चे साथी के लिए तड़पता,
                तो कोई पास होने पर भी परवाह नहीं करता।
                जैसे कोई तपते रेगिस्तान में पानी की बूँद को तलाशता,
                तो कोई सागर में भी प्यासा खुद को पाता।
जैसे कोई मीन बाढ़ के साथ मरूस्थल में आ जाए,
और उसी को तालाब समझ वहीं रुक जाए,
जब हो उसका असलियत से सामना,
तो उसके पैरों तले जमीन खिसक जाए।
                     तड़पती, इधर-उधर भटकती वह मात्र एक तालाब के लिए,
            ‌         क्या इसी के लिए थे उसने सागर छोड़ दिए?
                     हिम्मत नहीं हारी उसने, आख़री दम तक करती रही प्रयास,
                     कुछ दूरी पर पानी देखकर बंधी थी उसे आस।
पर यह क्या? दिल उसका सहम गया,
मृग मरीचिका देखकर जीवन भी उसका थम गया।
खुश्बु ढूंढती जरिया और जरिया तलाशता मंज़िल,
सभी एक के पीछे एक, नहीं किसी को भी कुछ हासिल।





पंचपोथी एक साहित्यिक मंच है,इस मंच पर आपको मिलेगी हिन्दी साहित्य रचना (जैसे कविता,गज़ल,कहानी आदि) 
तो देर किस बात की आइये पढ़ते है कुछ रचनाएँ जो प्रस्तुत है इस ब्लॉग पर
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