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शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

कविता/Ravinder kaur

 पंचपोथी - एक परिचय


नमस्कार 
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Ravinder kaur 


1.क्या हुआ अगर (कविता )


क्या हुआ अगर उम्र से पहले ही हो गए हैं

इक्का-दुक्का बाल सफेद 

ढलती शाम तो फिर भी छुपी नहीं है l

गुमान बड़ा है उन दो तरुओं पर जो 

सींचते रहे मुझे खून-पसीने से l

तालीम के जितने भी दीप जलाए 

हर एक का हिसाब रखा है मैंने l

मेरे गुलशन में भी मुस्कुराते फूल हैं 

इसलिए कांटों का शौक ज़रा कम रखा है मैंने l

पत्थर पर लिखे अल्फाज़ बहुत पढ़े हैं मैंने 

इकरार का सिर्फ एक लफ्ज़ याद रखा है मैंने l

यूँ तो अकेले भी उम्र गुजर जाएगी 

पर दिल्लगी का एक जरिया पास रखा है मैंने l

क्या हुआ अगर दुनिया गोल है नक्शा जेब में है 

पहुँच सकूँ किसी एक मुकाम पर इसलिए

हर मील पर एक पत्थर का निशान रखा है मैंने l

 

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2.अकेला चल (कविता )


एकाकीपन मेरे लिए बनवास है 

कितने महीनों और वर्षों का नहीं पता 

मैं न सीता हूँ न द्रौपदी 

फिर भी वचनबद्ध हूँ एक वचन के प्रति 

मर्यादाओं की सीमा में बंधी हूँ 

अकेले चलने की एक चेष्टा है मेरी 

मंजिल तक पहुँचने के लिए l


जरूरी है मेरे लिए उम्मीद की लौ जलाए रखना 

यही बनवास बाधाओं से लड़ने का रणक्षेत्र है 

और यही तीर्थयात्रा भी है मेरी 

जो संघर्ष से जूझने का संबल देती है 

अकेले चलना है तब तक मुझे 

जब तक अंधेरों में उजाले की 

कोई किरण न दिख जाए l 


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3.चाबी वाला स्कूटर (कविता )


भोली सी बालिका खिल उठी 

देख चाबी वाले एक स्कूटर को 

हाथ में आने से पहले ही 

हुआ आंखों से ओझल l


फिर उसको बड़ा ढूँढा था 

जिद करके खाना पीना तक छोड़ा था 

गुम हो गया कह सबने उसे भरमाया था 

इस पर भी उसका बाल-मन न माना था  l

 

देखा एक दिन उसने 

पड़ोस के एक बच्चे के हाथ में 

चुपचाप आ माँ से सारी बात कही 

माँ को न हुई हैरानी न कोई दी तवज्जों l


उसी रात उसने सुन लिया माँ से कहा

पापा का वो वाक्य शुक्र है भगवान का  

बॉस ने बताया चिंटू को उपहार पसंद आया l


अतीत की स्मृतियों में खो गया 

खिलौने का रंग रूप 

याद रही बस ये बात  

एक चाबी वाला स्कूटर था 

जो मुझे तब मिला जब 

मेरा बचपन कहीं खो गया था l

  

आज समझ में आती है 

माता-पिता की वो मजबूरी 

आज खिलौनों की कोई कमी नहीं 

बस कमी है इतनी कि हृदय का जो

एक मासूम सा कोना सूना है 

वो कभी न पूरा होना है l


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4.कल (कविता )


बीत गया जो वो कल था 

जो आएगा उसे भी कल ही कहते हैं 

इन दोनों कलों के मध्य 

मैं बन गई हूँ एक कल-पुरजा 

एक ऐसे सिलाई उपकरण का

जो युगों-युगों से 

जोड़ रहा है

एक कल को दूसरे कल से 

एक युग को दूसरे युग से 

निरंतर ध्वनित होता है 

कल-कल, टक-टक 

जताता है बार-बार 

अपने अस्तित्व का एहसास l

 

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5.हम ना सुनते (कविता )


आता है हमें हाँ में हाँ मिलाना 

हम नहीं सुनना चाहते  

अंतर्मन की आवाज़ को 

आत्मा के चित्कार को 

दुखियों के क्रंदन को 

गलियों में पसरे सन्नाटों को 

बमों के धमाकों को l


हम सुनना जानते हैं

अपने स्वार्थ की पुकार 

औरों की निन्दा अपनी प्रशंसा 

आज के मानव की यही है त्रासदी 

ये श्रवणेंद्रियाँ वरदान नहीं श्राप सी हैं 

जो हमारे ही दुष्कर्मों का फल हैं 

अनसुने अल्फ़ाजों को यदि 

कर्णेंद्रियाँ सुन पाती

स्वर्ग की कामना किसी को न होती 

धरा ही होती इंसानियत के 

देवताओं की भूमि l

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सभी रचनाएं मौलिक और स्वरचित हैं 
रवींद्र कौर 
Ravinder Kaur 
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