पंचपोथी - एक परिचय
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Bhavna dutt
रचनाएँ:-
आँखो के कोर में छिपा के अपने आंसुओं को,
भीगी भीगी पलकों में बस उसकी तस्वीर लिए।
यूँही बस मुस्कुराते हुए अलविदा कह दिया था,
जब उस वीर की वीरांगना ने उस वीर शहीद को।
आज टूट गए थे जो बुने थे ख़्वाब संग उसके,
बस रह गई थी ज़िम्मेदारियाँ जो छोड़ गया था वो।
अपने चेहरे पे हल्की सी तल्खी के भाव को छुपाकर,
बुने ख़्वाबों की शहादत को काँधे पे डाल जी रही थी जो।
काश ! उसके दर्द को भी महसूस कर पाता कभी कोई,
जो उसकी सूजी आँखों से झलकता है रात भर रोई हैं जो।
-भावना दत्त
शीर्षक- अकेला चल
जीवन की राहों की कठिन डगर
साथ तेरे कोई हो या ना हो हमसफ़र
बैठ ना थक हार के ओ राही तू अकेला चल।
थाम उम्मीदों का दामन
भरकर आँखों में नए स्वप्न
करके दृढ़ संकल्प मन में ओ राही तू अकेला चल।
कर दे जग में ऐसे काम तू
छोड़ अपने पथ पे निशान तू
भीड़ होगी पीछे इक दिन ओ राही तू अकेला चल।
चूम ले तू कामयाबी के शिखर
सबकी ज़ुबाँ पे हो बस तेरा जिकर
छोड़ अभिमान की चादर प्रेम के दीपक जलाते तू अकेला चल।
- भावना दत्त
शीर्षक- बहुत सह लिया
बहुत सह लिया अब ना सहेंगे और तेरे इन ज़ुल्मों को।
अब तो बस प्रतिकार करेंगे मिलकर तेरे कुकर्मों को।
जब हो तेरा मन तू मुझको बाल पकड़ बुलवाएगा
मेरे तन के चीर को तू दुशासन से खिचवायेगा।
भरी सभा में तू मुझको अपमानित करवाएगा।
द्रोपदी नहीं हूँ समझ ले इतना मैं आज की नारी हूँ।
काट दू तेरे उन हाथों को जो चीर को हाथ लगाएगा।
समझ के तूने अबला नारी बहुत जुल्म किए हमपे।
बहुत सह लिया अब ना सहेंगे तेरे इन कुकर्मों को।
जुल्मों को करते-करते तू शायद ये भी भूल गया।
कि माँ दुर्गा ने काली बनकर धरती को राक्षस विहीन किया।
माँ काली को शांत करने को शिव ने खुद को धूल में लीन किया।
ग़र तुम भी राक्षस बन जाओगे काली हम बन जाएंगे।
तुमको बचाने की ख़ातिर कोई शिव ना आएंगे।
अब भी समय है सम्भल जा मानव मत बन जा दानव तू।
बहुत सह लिया अब ना सहेंगे और तेरे इन जुल्मों को।
-भावना दत्त
शीर्षक- काश मैं पँछी होती
काश के मैं भी पंछी होती
दूर गगन में मैं उड़ जाती
मन में जो भी इच्छा होती
उसको में पूरा कर पाती।
जन्म लिया इंसान का जो
कितने बंधन है मैंने पाए
कितने सपनों को तो मैंने
दिल के कोने में दफनाए।
जब-जब मैंने उड़ना चाहा
काट के मेरे पंख गिराए
कभी झूठी प्रतिष्ठा के खातिर
कभी फर्ज़ ही आड़े आए।
कोई तो होता जो ये कहता
तू भी उड़ जा दूर गगन में
तू भी जी ले उन सपनों को
जो आँखों में तूने सजाए।
-भावना दत्त
शीर्षक- नारी दूर्दशा
क्यूँ है पड़ी आज भी बेड़िया, नारी के पाँव में।
जब जब उडना चाहा उसने, नोच दिए पंख ताव में।
क्यूँ ये पुरुष प्रधान समाज जब तब, नारी को नोचता आया।
तरस रही है न्याय को नारी, क्यूँ कोई समझ नहीं पाया।
क्यूँ हर तरफ पुरुष यूँ दानव बन कर घूम रहा।
जहां देखा कोई कली खिली, मासूम कली को रौंद रहा।
भूल गया है इसी नारी के अंश से उसने जन्म लिया।
भूल गया उसी वक्षस्थल का दूध पीकर इस काबिल हुआ।
शर्मसार कर रहा है माँ को, जिस माँ ने उसको जन्म दिया।
भूल गया उस कर्ज को जो, एक नारी ने उस पर किया।
कई रिश्तों में बाँधा नारी ने, प्रेम से सींचा हर रिश्तों को।
तोड़कर हर रिश्ते की मर्यादा, यूँ रिश्तों को तार तार किया।
बहुत हो चुका अब अगर, नारी में जाग गयी दुर्गा-काली।
तेरा अस्तित्त्व भी ना कहीं बचेगा, तू बहुत पछताएगा।
नहीं है नारी अबला, जो अब सब कुछ सहती ही जाएगी।
तुझको मारने के ख़ातिर, अब तेरी माँ ही शस्त्र उठाएगी।
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