रचना:-1
1) लाल बहादुर शास्त्री जी
नेत्र मुगलसराय में खोले,मुख से शांत स्वभाव थे भोले,
देश जुनूनी थे,सहानुभूति से सरोबार, प्रतिभा के तोले,
न अहम न दम्भ निर्धनों के हित मे हरवक्त मुख खोले,
कर्मठ, कर्णधार देश के वो लाल हर कोई ही ये बोले,
अपने निजी हित को त्याग स्व श्वेद से देश को नहलाया,
आज जो आजादी का जश्न मना रहे ये उनकी है माया,
नारा ऐसा दिया जय जवान,जय किसान सब को भाया,
परिश्रम की भट्टी में स्व को नित नित उस लाल ने तपाया,
देशप्रेमी इस था रणभेरी में जा विश्व शान्ति का गुण गाया,
फिर लहूलुहान उसका कीमती देह फिर देश के काम आया।
स्वरचित मौलिक रचना (निशा कमवाल)
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रचना:-2
2) मैं बनूँगा कलाम
चल उनके शाश्वत अनुनय विचारों पर मैं,अपने अथक प्रयासों से कलाम बनूँगा।
हो मेरा राष्ट्र भारत भी सर्वोपरि व सर्वश्रेष्ठ ,मैं अपने निज यत्नों से नवसंचार रचूंगा।
कर जाये जो रौशन,बन दीपक की लौ,मैं एक कर्मठ भविष्यकर्ता तैयार करूँगा।
आये जो मेरे राष्ट्र के काम बन जाये इसकी पहचान मैं वो मिसाइल मैन बनूँगा।
त्याग निज मोह को लूटा अपना सर्वस्व,मैं भारत को रत्नजड़ित राष्ट्र करूँगा।
तकनीक एक उपहार वरदान सम ही है ,इसे संहारक नही एक विज्ञान योद्धा बनाऊंगा।
कर तुच्छ सा त्याग बलिदान इस राष्ट्र को,मैं आने वाले कल के बच्चों का बेहतर बनाऊंगा,
देखा जो एक भारत व श्रेष्ठ भारत का सपना,मैं एकचित व निष्ठावान लक्ष्य के प्रति हो जाऊँगा।
स्वरचित मौलिक रचना (निशा कमवाल)
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रचना:-3
3) नदी औऱ नारी
सरिता सम नारी का स्वरूप, जीवनदायनी, जगकल्यानी यह कहलाती है,
दे वारि नदी प्यासे को जीवनदान देती है,दे नारी मानव को जन्मदात्री कहलाती है,
स्वयं झेल हजारों दुख दर्द ये नारी समस्त जन को उबरती है,नारी की भांति यह नदी भी अपनी शीतलता व वैतरणी पार यह लगाती हैं,
यह नारी है जो जगकामना कि जा सकती है, नदियों से अविरल धारा सलिल प्रवाहित होती जाती है,अपने स्वर में बहती मुस्काती जाती हैं,
तरणी यह शांत अपना वास्तविक रूप खो सागर से मेल करती है,डाली जो बाधा मार्ग में यह नारी सम रौद्र रूप ले सब उजाड़ती है।
स्वरचित मौलिक रचना (निशा कमवाल)
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रचना:-4
4) ग्रहण
लगा जो ग्रहण धरती पर मानो विपदा का कोई रंगमंच है,
छल रहे एक दूसरे को तनिक मोह में पल में रचते प्रपंच हैं,
जा रही सम्पूर्ण संस्कृति,सभ्यता गहरे गह्वर व पतन की ओर,
सम्पूर्ण प्रकृति का कालग्रास बना मानव जिसका नही कोई छोर,
लाचारी,बेबसी, विक्षुब्धता हाहाकार मच रहा अब देखो चहुँओर,
न इंसान की इंसानियत बाक़ी हैं, न मानवता की पोशाक विमल है,
जहाँ बहती थी सत्य,अहिंसा की सु सरिता अब वो भी अनिर्मल हैं,
स्वरचित मौलिक रचना (निशा कमवाल)
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रचना:-5
5) परिवार
बिन अपनो के साथ के सर्वत्र व समस्त मिथ्या व अहंकार,
पग पग पर छलता हैं सुख चैन फिर लूटता हैं यह संसार ,
न कोई राह होती न कोई देता है सुमार्गदर्शन का आधार,
इसलिये खुशियों की बुनियाद, मुस्कुराने की वजह परिवार।
रखना न कोई भी बैर न कोई मामूली सी भी गलतफहमी,
फिर जमाना लूट लेगा फायदा, फिर जिंदगी होगी सहमी,
स्वंय को दर्पण सा स्वच्छ अक़्स रखे,न करना कोई बेरहमी,
हर परिवार में होती नोकझोंक,हर बातों से न होती बदहजमी,
युगों युगों से चलता आया है, परिवार से ही सब खुशी का साया है,
सब देंगे धोखे इस ज़माने में,परिवार ही बनता मुश्किल में साया है,
सभी रिश्तों की बागडोर बंधी है,यही सबका सच्चा परछाया हैं,
सभी साथी संगी इसमे यहिं हमारे सभी सदस्यों ने सिखाया हैं।।
स्वरचित मौलिक रचना (निशा कमवाल)
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