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बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

कविता/पूजा गौतम

 पंचपोथी - एक परिचय


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हमारे कवि व उनकी रचनाएँ 



पूजा गौतम

परिचय:-
Your quote app प्रोफ़ाइल- Pooja gautam


(1) रचना - 1

प्रेम विरह( काव्य)
****************

आज मूक बनी बैठी, प्रभात की बेला संभाले राखी हूं,
प्रिये! काहे ना आते, विधवा का जीवन अपनाती हूं,

सूखे पत्तों सी मुरझाई, श्वास भी ना भर पाती हूं,
विरह ऐसा दुखदाई, आस की बाती बुझाती हूं,

हृदय मन में वास करे तुम, सूखी नदी सी कहलाती हूं,
आलिंगन की अतृप्त लालसाएं, जो कुटिया में सिमटे रह जाती हूं,

अश्रुओं की धारा में बहती, दुखद पीड़ा का शोक मनाती हूं,
प्रकृति से कोई मोह ना लागे, अंधकार जीवन ध्याति हूं,

मृत्यु को तुम गले लगाए, रंगविहीन वस्त्र अपनाती हूं,
खुशियों का बिन द्वार जो खोले, मुरझाए फूल सी टूट गिर जाती हूं।।
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(2) रचना -2

    ज्ञान राह - भक्ति राह
     ****************
भक्ति ईश्वर को प्राप्त करने की सिद्धि, बिन ज्ञान प्रभु प्राप्त ना होवे,
मंदिरों के घंटे बजाए ये मानव, पर मोक्ष की प्राप्ति इसे ना आती,

इन्द्रियों को जो वश में ना कर पाता, देखो साधु बने बैठे है आदमी,
ऐसी आसक्ति का कोई मोल नहीं है, जहां कीट पतंगे पैर से कुचली जाती।

ज्ञान चक्षु खोले जो बुराइयों को त्यागे, सिद्धि भी सोचो उसी को आती,
लक्ष्मी की पूजा घर में करता है, फिर क्यूं बहू बेटियों घर में पीटी जाती,

अधूरा ज्ञान सिर्फ विनाश है करता, आध्यात्मिक राह इससे नहीं बनती,
आडंबरों की दुनिया पोथियां है पढ़ती, समझने की शक्ति इसमें किंचित नहीं होती।।
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(3) रचना - 3

कर्म
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इच्छाएं मन में तीव्र पनपती, चाहते हर क्षण तेरी बढ़ती,
ऐसी काया का क्या करना है, जहां पेट भरने की सिर्फ सोच ही बनती,

बिना कर्म यहां कुछ नहीं मिलता, बैठे ज़िन्दगी नहीं है कटती,
कुछ करने की चाह जो मन में अपना ले, बिगड़ती राह स्वयं ही बनती ,

कैसे भूल गया कृष्ण की बातें, जो आसक्तियां त्यागे कर्मों की बात थी करती,
इतिहास भी जो मेहनत को सर्वोपरि माने, फल की चिंता क्यूं तुझे है लगती,

जितना संघर्ष तू आज करेगा, उतना भविष्य कल उज्ज्वल दिखेगा,
बिगड़ते को भी मैंने बनते देखा, कर्म भाग्य परिवर्तन करेगा।।
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(4) रचना - 4

गरज मेघ की
*************

गरज रहे हैं काले मेघा, जाने कौन सी व्यथा फिर सुनानी है,
विकराल रूप धारण करता ये, जाने अब किसके कष्ट की बारी है,

गुस्से में चौकन्ना करे कहता, प्राणियों विनाश होती धरा लुट जानी है,
चलायमान सृष्टि रुक जाएगी, बंजर भूमि रह जानी है,

मानव है इस विनाश का भागी, अपने हिसाब से प्रकृति चलानी है,
खुद प्रभु का ओहदा लिए है बैठा, संकट की घड़ी अब आनी है,

मैं हूं आकाश का सेवक, सचेत करने सिर्फ आता हूं,
संभल सके तो संभल जा प्राणी, वरना दुर्गति तेरी अनहितकारी है।।
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(5) रचना - 5

नज़्म
******

ठहरी ज़िन्दगी की वो भी क्या नज़्म थी,
जिसे देखने वाले हज़ारों,पढ़ने वाला कोई नहीं,
अंधेरे कमरो की मटमेली किताबो में पढ़ी,
अकेली, सेहमी, डरी कोने की दहलीज पर बैठी,
ठहरी ज़िन्दगी की वो भी क्या नज़्म थी।

रोंदे हुए कागज़ो में आधे अधूरे बयान थे उसमें,
जिसपर गिरे अर्सो के आंसुओ के धब्बे गहरे थे जिसमें,
पीले पनो में अतीत के दर्द छुपाती,
गुमसुम एक टक देखे हो जैसे,
ठहरी ज़िन्दगी की वो भी क्या नज़्म थी।

धूल की चादर गहरे राज उसके बताए,
बेरंग सी बुझी, खुद से सवालों की झड़ी लगाए,
जिस टूटी कलम से , कभी खुद की लिखी कहानी थी,
लोग जिसे आज भी कहते,
ठहरी ज़िन्दगी की वो भी क्या नज़्म थी।।

- पूजा गौतम



हमारे लेखक व उनकी रचनाएँ 




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